उत्तर -
जीवात्मा शरीर में सदा एक स्थान पर नहीं रहता. वह स्थान बदलता रहता है. मुख्य रूप से उसके रहने का स्थान 'हृदय' है. कठोपनिषद में लिखा है, "हृदि हि एष आत्मा." अर्थात आत्मा हृदय में रहता है. परन्तु अन्य अनेक उपनिषदों में आत्मा के अनेक स्थान भी लिखे हैं. ऐतरेयोपनिषद में लिखा है, 'आत्मा के ३ निवास स्थान हैं.' परन्तु उन स्थानों के नाम स्पष्ट नहीं लिखे. छान्दोग्य या बृहदारन्यक उपनिषद् में लिखा है, 'जब जीवात्मा सोता है, तो पुरीतत नाम के नाड़ी में जा कर सोता है.'
महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में लिखा है, कि 'जीव के जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि को भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है.' अर्थात महर्षि जी के अनुसार तथा उपरोक्त अनेक प्रमाणों के आधार पर आत्मा २४ घंटे शरीर में एक ही स्थान पर नहीं रहता. वह समय समय पर शरीर में स्थान बदलता रहता है.
अगली बात > आत्मा पूरे शरीर में व्यापक नहीं है. यदि व्यापक हो, तो जब वह अपने कर्मानुसार हाथी के शरीर में जायेगा, तो आत्मा को हाथी के शरीर के आकार जितना फैलना पड़ेगा, और जब चींटी के शरीर में जायेगा, तो उसे सिकुड़ना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में फ़ैलाने सिकुड़ने वाली वस्तु नाशवान होती है. तो जीवात्मा को नाशवान भी मानना पड़ेगा, जो कि वैदिक शास्त्रों के विरुद्ध है. इसलिए जीवात्मा पूरे शरीर में एक साथ व्यापक नहीं है. वह समय समय पर अपनी आवश्यकतानुसार शरीर में स्थान बदलता रहता है. उदहारण > जैसे हम सारा दिन = २४ घंटे अपने घर में एक ही कमरे में नहीं बैठे रहते. कभी भोजनशाला में, कभी स्नानघर में, कभी शौचालय में, कभी स्वागत कक्ष में और कभी शयन कक्ष में . इसी तरह से समझना चाहिए, कि जीवात्मा भी २४ घंटे शरीर में एक ही स्थान पर नहीं रहता. वह भी शरीर में स्थान बदलता रहता है.
-स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक.
जीवात्मा शरीर में सदा एक स्थान पर नहीं रहता. वह स्थान बदलता रहता है. मुख्य रूप से उसके रहने का स्थान 'हृदय' है. कठोपनिषद में लिखा है, "हृदि हि एष आत्मा." अर्थात आत्मा हृदय में रहता है. परन्तु अन्य अनेक उपनिषदों में आत्मा के अनेक स्थान भी लिखे हैं. ऐतरेयोपनिषद में लिखा है, 'आत्मा के ३ निवास स्थान हैं.' परन्तु उन स्थानों के नाम स्पष्ट नहीं लिखे. छान्दोग्य या बृहदारन्यक उपनिषद् में लिखा है, 'जब जीवात्मा सोता है, तो पुरीतत नाम के नाड़ी में जा कर सोता है.'
महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में लिखा है, कि 'जीव के जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि को भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है.' अर्थात महर्षि जी के अनुसार तथा उपरोक्त अनेक प्रमाणों के आधार पर आत्मा २४ घंटे शरीर में एक ही स्थान पर नहीं रहता. वह समय समय पर शरीर में स्थान बदलता रहता है.
अगली बात > आत्मा पूरे शरीर में व्यापक नहीं है. यदि व्यापक हो, तो जब वह अपने कर्मानुसार हाथी के शरीर में जायेगा, तो आत्मा को हाथी के शरीर के आकार जितना फैलना पड़ेगा, और जब चींटी के शरीर में जायेगा, तो उसे सिकुड़ना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में फ़ैलाने सिकुड़ने वाली वस्तु नाशवान होती है. तो जीवात्मा को नाशवान भी मानना पड़ेगा, जो कि वैदिक शास्त्रों के विरुद्ध है. इसलिए जीवात्मा पूरे शरीर में एक साथ व्यापक नहीं है. वह समय समय पर अपनी आवश्यकतानुसार शरीर में स्थान बदलता रहता है. उदहारण > जैसे हम सारा दिन = २४ घंटे अपने घर में एक ही कमरे में नहीं बैठे रहते. कभी भोजनशाला में, कभी स्नानघर में, कभी शौचालय में, कभी स्वागत कक्ष में और कभी शयन कक्ष में . इसी तरह से समझना चाहिए, कि जीवात्मा भी २४ घंटे शरीर में एक ही स्थान पर नहीं रहता. वह भी शरीर में स्थान बदलता रहता है.
-स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक.
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