इस जगत में तीन पदार्थ अनादि है और वे है ईश्वर, जीव और जगत का कारण प्रकृति। उपनिषद के अनुसार प्रकृति, जीव और परमात्मा, तीनों अज अर्थात् जिनका कभी विनाश नहीं होता, बल्कि ये तीन जगत के कारण है। जीवों को उस ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए जिस ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति, स्थिति और जीवन होता है, जिसके बनाने और धारण करने से यह जगत विद्यमान हुआ है। ऋग्वेद के एक मंत्र 'द्वा सुपर्णा समुजा सखाया..' के अनुसार यह संसार एक विशाल वृक्ष के समान है जिस पर खट्ठे और मीठे फल लगे हुए है। इस प्रकृति रूपी वृक्ष पर दो प्रकार के पक्षी बैठे हुए है। इन पक्षियों में एक प्रकार के पक्षी वृक्ष के खट्ठे-मीठे फलों को खा रहे है और दूसरे पक्षी केवल साक्षी रूप में देख रहे है। फलों को खाने वाले पक्षी जीव है जो अपने अच्छे-बुरे कर्मो के फलों को खाता-भोक्ता हैं और दूसरा न भोक्ता-खाता ब्रह्म है जो जीवों को उनके कर्मो के अनुसार फलों की व्यवस्था करता है।
संसार के कार्य-व्यवहार में भी हम देखते है कि तीन के बिना काम नहीं चलता। जैसे किसी दुकान चलाने के लिए दुकानदार, ग्राहक और सामान, तीनों की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के भी अभाव में दुकान नहीं चल सकती। इसी प्रकार दयालु परमेश्वर ने जीवों के कल्याण के लिए ही प्रकृति के मूल तत्वों से इस जगत की रचना की है। ईश्वर जैसे अजर, अमर, अविनाशी और अजन्मा है, वैसे ही जीव भी अजर, अमर, अविनाशी और अजन्मा है। ईश्वर एक है, जीव अनेक है। ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति, पालन, प्रलय कर्ता और जीवों को फल देकर न्याय करता है। ईश्वर सत् चित् आनंद है, जीव सत् व चित् है और प्रकृति केवल सत् है। ईश्वर और प्रकृति के बीच में जीव की स्थिति है। सत् जो प्रकृति का गुण है, वह तो जीव के पास भी है, परंतु जीव के पास आनंद का अभाव है जो उसे आनंद के भंडार परमात्मा से ही प्राप्त हो सकता है, परंतु जीव उसे प्रकृति में ढूंढ़ता है जो वहां है ही नहीं। आनंद की प्राप्ति के लिए जीव को ईश्वर की उपासना करनी होगी। ईश्वर, जीव और प्रकृति-इन तीनों के अनादि होने की यह अवधारणा ही वेदों का त्रैतवाद है।
-[ओमप्रकाश आर्य]
संसार के कार्य-व्यवहार में भी हम देखते है कि तीन के बिना काम नहीं चलता। जैसे किसी दुकान चलाने के लिए दुकानदार, ग्राहक और सामान, तीनों की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के भी अभाव में दुकान नहीं चल सकती। इसी प्रकार दयालु परमेश्वर ने जीवों के कल्याण के लिए ही प्रकृति के मूल तत्वों से इस जगत की रचना की है। ईश्वर जैसे अजर, अमर, अविनाशी और अजन्मा है, वैसे ही जीव भी अजर, अमर, अविनाशी और अजन्मा है। ईश्वर एक है, जीव अनेक है। ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति, पालन, प्रलय कर्ता और जीवों को फल देकर न्याय करता है। ईश्वर सत् चित् आनंद है, जीव सत् व चित् है और प्रकृति केवल सत् है। ईश्वर और प्रकृति के बीच में जीव की स्थिति है। सत् जो प्रकृति का गुण है, वह तो जीव के पास भी है, परंतु जीव के पास आनंद का अभाव है जो उसे आनंद के भंडार परमात्मा से ही प्राप्त हो सकता है, परंतु जीव उसे प्रकृति में ढूंढ़ता है जो वहां है ही नहीं। आनंद की प्राप्ति के लिए जीव को ईश्वर की उपासना करनी होगी। ईश्वर, जीव और प्रकृति-इन तीनों के अनादि होने की यह अवधारणा ही वेदों का त्रैतवाद है।
-[ओमप्रकाश आर्य]
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