वैसे तो धर्म का क्षेत्र अति विस्तृत है, क्योंकि मनुष्य के जीवन का पथ आधार भूत ही धर्मं है |और धर्मं ही है उसका निरूपण एवं पथ प्रदर्शक | किन्तु फिर भी विद्वानों ने जो संक्षेप धर्म की परिभाषा की है वह इस प्रकार है -
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः |
अर्थात जिन कर्मो के करने से इस लोक और परलोक दोनों की सिद्धि हो वही धर्मं है | अब देखिये और विचार कीजिए की मनुष्य के जीवन के लिए कितनी सार्थक है यह धर्मं की परिभाषा | इसमें श्रेष्ठ कर्मो के करने पर विशेष बल दिया गया है | ऐसे कर्म और कर्त्तव्य जिनसे ईश्वर भक्ति में अटल विश्वास और प्राणी मात्र की सहज सेवा के लिए जाग्रति उत्पन्न होती है वही धर्मं है |
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः |
अर्थात जिन कर्मो के करने से इस लोक और परलोक दोनों की सिद्धि हो वही धर्मं है | अब देखिये और विचार कीजिए की मनुष्य के जीवन के लिए कितनी सार्थक है यह धर्मं की परिभाषा | इसमें श्रेष्ठ कर्मो के करने पर विशेष बल दिया गया है | ऐसे कर्म और कर्त्तव्य जिनसे ईश्वर भक्ति में अटल विश्वास और प्राणी मात्र की सहज सेवा के लिए जाग्रति उत्पन्न होती है वही धर्मं है |
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